दर्द बयां करते पहाड़
पहाड़ोंकी खेती-बाड़ी
बंदर, सूअरों ने बिगाड़ी
गांवो, खेतों, तोकों में फैले
झुण्डों में हैं जानवर छोड़े।
की फसल बरबाद इस तरह…
देखे रह गये सब खड़े हाथ जोड़े।
दो-चार तो मार भागते
पलटन से कैसे बच पाते
कुनबा लेकर जब चला बंदर,
मारे डर के सिमटे अंदर।
ये सच हैं कर नही सकते निगरानी,
घंटों चौबीस करते जानवर मनमानी।
जंगल छोड़ शहर क़स्बों से होकर
चर्चा होती इनके जमघट को लेकर।
समझते सब अपना किला इधर
आदमी हुआ बेघर,घर में रहकर।
रहना हुआ दूभर,कहाँ खेती-पाती,
पेडों से फल-फूल गायब
सुना आंगन अब न मुस्कराती।
रात को बरहा घूमते
जैसे घूमते युद्ध वीर,
कहाँ से उपजे आलू,पिनालू
कैसे पके खीर।
सुबह-शाम बेखौफ घूमता
आ धमकता दिन-दहाड़ें गुलदार,
मवेशियों की दावत उड़ाता
बच्चें, बुढ़े, महिला लाचार।
वीरानियाँ छाने लगी हैं अब,
उजड़े, बंज़र गांवो में
बच गए जो मोहपाश से इधर
नही दिल की धड़कन उनके काबू में।
पहले से ही मार जेहन में पड़ी
पलायन,बेरोजगारी, चिकित्सा की,
ऊपर से आतंक जानवरों का
हाल-बेहाल,नही खुशहाल,
बयां दर्द ये पहाड़ो की।
चाँद, मंगल पर हैं अब बसने वाले
नेताजी का प्रचार हैं।
चिंता मत करो कम होंगी समस्याएं
चिता तक रास्ता बनाये हज़ार हैं।
अब तो पानी सिर से निकला,
फिसल रहा पहाड़ हैं,
बंदर,सूअरों से लड़ते-लड़ते,
बाखली में उगी लंबी झाड़ हैं,
बाखली में उगी लंबी झाड़ हैं।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ पिथौरागढ़, उत्तराखंड