चौमास में सूखा : पर्यटन और फिल्मांकन पर ब्रेक से लगा उत्तराखंड को धक्का
विजय पंवार
देहरादून। पर्यटन प्रदेश के रूप में स्थापित उत्तराखंड पर कोरोना की दोहरी मार पड़ी है। पर्यटन व्यवसाय पिछले दो साल से चौपट है। इस बीच उत्तराखंड फिल्मांकन के उत्कृष्ट गंतव्य के रूप में उभरा था। फिल्म फ्रेंडली नीति से हाल के वर्षों में यहां रोजगार का नया क्षेत्र उभरा था, लेकिन कोरोना का ऐसा ग्रहण लगा कि सारी उम्मीदें धूल धूसरित हो गई।
इन पंक्तियों के शीर्षक पर गौर करें। चौमास में सूखा यूं ही नहीं लिया गया है। वस्तुत वसंत के बाद उत्तराखंड में कोई लुभावना मौसम होता है तो वह चौमास ही होता है, जब ऊंचे बर्फ से ढके रहने वाले बुग्यालों में भी हरियाली पसर जाती है, चारों ओर हरियाली ही हरियाली, नदी नालों का गर्जन तर्जन, खेत खलिहान में लहलहाती फसल, छोया झरने और वह सब कुछ किसी स्वप्नलोक का आभास कराता है, वह सब उत्तराखंड की वादियों में नजर आता है। फिल्मांकन के लिए इससे बेहतर कोई और दृश्य क्या हो सकता है, उत्तराखंड के फिल्मकार इस मौसम का इंतजार करते हैं लेकिन इस बार सूखा सा पड़ गया है। यह वेदना निसंदेह असह्य है। इन दिनों जहां मेला सा होना चाहिए था, वहां सन्नाटा चिंता तो बढ़ाता ही है, क्योंकि इसके साथ कई लोगों के न सिर्फ सपने जुड़े हैं, बल्कि रोजगार और दशा दिशा भी जुड़ी है। इसलिए चौमास का सूखा बहुत कष्टदाई है।
ऐसा नहीं है कि पहले उत्तराखंड में फिल्मांकन नहीं होता था, बल्कि यह धंधा पिछले पांच छह दशक से चल रहा था, लेकिन तब साल दो साल में एकाध फिल्म ही उत्तराखंड में शूट होती थी, अलबत्ता वीडियो एलबम और कुछ आंचलिक फिल्म के निर्माण के दौर के बाद इसमें तेजी आई। कहना चाहिए कि पिछली शताब्दी के आठवें दशक में जग्वाल जैसी फिल्मों के बाद कई फिल्में बनी और बॉलीवुड ने भी कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के साथ उत्तराखंड को भी चुना। राज कपूर की राम तेरी गंगा मैली फिल्म उसी दौर में बनी थी, जिसने शानदार लोकेशन के लिए उत्तराखंड के प्रति फिल्म निर्माताओं को आकर्षित किया लेकिन इस कवायद को गति मिली, अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद। पृथक राज्य बना तो आंचलिक फिल्में भी खूब बनी और मुंबईया सिनेमा ने भी उत्तराखंड को अपनी पसंद में शामिल किया। स्थानीय कलाकारों को काम मिला तो साथ में गाड़ी घोड़ा, होटल मोटल, रिजॉर्ट का काम भी बढ़ा। सुदूर लोकेशन के लिए मजदूरों को भी काम मिला तो छोटे मोटे व्यवसाय, चाय ढाबे वाले भी लाभान्वित हुए, यानी एक अलग कल्चर विकसित हुआ।
पिछले डेढ़ साल से इन तमाम गतिविधियों पर ब्रेक सा लगा है। हालांकि कुछ लोगों ने इस दौरान भी अपने सृजन को जारी रखा, जैसे कवि नेगी ने दो शानदार वीडियो शूट किए, विपिन सेमवाल ने मंगतू सीरीज शुरू की लेकिन रफ्तार पर तो ब्रेक ही लगा रहा। इनकी तरह कुछ और लोगों ने भी अपने हुनर को परोसा, लेकिन वह बात नहीं रही, जो पहले सामान्य रूप से नजर आ रही थी।
मसूरी, धनौल्टी, चकराता, चोपता, औली, नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़ के चौकोड़ी, रामनगर, मानिला आदि तमाम जगहों पर सन्नाटा सा है। न पर्यटक आए न फिल्म निर्माता पहुंचे। स्थानीय कलाकारों ने जो कुछ प्रयास किया वह केवल मन को सन्तोष देने का प्रयास ही कहा जा सकता है।
फिलहाल देश कोरोना की दूसरी लहर से जूझ रहा है। इस पर बेशक काफी हद तक काबू पा लिया गया है लेकिन इधर तीसरी लहर की चेतावनी ने फिल्मकारों के हौसले को पस्त कर दिया है। पर्यटन और फिल्मांकन हाल के वर्षों में एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़ गए थे कि उम्मीद की बड़ी किरन नजर आ रही थी। उत्तराखंड के कलाकारों ने भी इसके चलते बड़े सपने देखने शुरू किए थे लेकिन कोरोना ने ग्रहण लगा दिया।
अगर देश में टीकाकरण की रफ्तार ठीक रही और तीसरी लहर ने विचलित नहीं किया तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्ष 2022 में इस क्षेत्र में उत्तराखंड लम्बी छलांग लगा सकता है। कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की तुलना ने दिल्ली से उत्तराखंड की दूरी कम होने से राज्य के पर्यटन और फिल्मांकन के क्षेत्र में नई इबारत लिखी जा सकती है। आप और हम उम्मीद करें कि अंधेरा छंटेगा, नई सुबह होगी और सब कुछ फिर पटरी पर लौट आएगा। यही उम्मीद भविष्य के प्रति आशान्वित करती है।