उत्तराखण्ड में ऐसा ही एक शैव पीठ है जहां भक्तों की हर मनोकामना पूरी
देहरादू। देवभूमि में हिंदुओं के विश्व प्रसिद्ध कई धाम होने के साथ ही यहां अनेक सिद्ध पीठ एवं शैव पीठ भी हैं,जो सदियों से श्रद्धालुओं के आस्था और भक्ति के केंद्र रहे हैं । उत्तराखण्ड में ऐसा ही एक शैव पीठ है एकेश्वर महादेव, जिन्हें स्थानीय भाषा में ईगासर देवता के नाम से जाना और पुकारा जाता है। समुंदर तल से 1575 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एकेश्वर बाज़ार के पातल ग्रामसभा में यह सिद्ध पीठ विराजमान हैं। मान्यता है कि एकेश्वर महादेव निसंतान दम्पत्ति की सुनी गोद को हराभरा करते हैं। इसलिए इस सिद्ध पीठ को संतान दत्तात्रेय के रूप में भी जाना जा है।
शुभम करोति कल्याणम, आरोग्यम, धन, सम्पदा।।
शत्रु ,बुद्धि विनाशाय,दीपज्योति नमोsस्तु ते।।
एकेश्वर शैव पीठ हज़ारों साल प्राचीन है। कहा जाता है कि द्वापरयुग के महाभारत काल में पांडव एकेश्वर में आए थे। उन्होंने यहां की प्राकृतिक सुंदरता में कुछ पल बिताए थे और इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा, अर्चना और स्तुति की थी। मान्यता अनुसार 810 ई के आसपास, आदिगुरु शंकराचार्य जब एकेश्वर आए थे तो उन्होंने यहां पर भगवान शिव की पूजा अर्चना करने के साथ ही मन्दिर की स्थापना की थी। बार बार जीर्णोद्धार होने के कारण मन्दिर का पौराणिक स्वरूप सदियों पहले ही समाप्त हो चुका है। मन्दिर के गृह में स्वयम्भू शिवलिंग विराजमान हैं, जो अपने भक्तों का कल्याण करते है। कहा जाता है कि सदियों पहले एकेश्वर महादेव मंदिर से सीधे बदरीनाथ मन्दिर तक सुरंग हुआ करती थी, जिसे किसी कारणवंश या दैवीय आपदा के चलते बन्द हो गया। कहा जाता है कि जब भगवान शिव ने ताड़कासुर का वध किया तो महादेव एकेश्वर से ही ताड़केश्वर गए थे। एकेश्वर का अभिप्राय है कि बहुत से देवताओं की अपेक्षा एक ही ईश्वर को मानना, इस धार्मिक अथवा दार्शनिकवाद के अनुसार कोई एक सत्ता है जो विश्व का सृजन ओर नियंत्रण करती है, जो नित्य ज्ञान और आनन्द का आश्रय है, जो पूर्ण और सभी गुणों का आगर है, और जो सबका ध्यानकेंद्र और आराध्य है। अनुमान के अनुसार एकदेवता सिद्धांत यानी भगवान शिव के शैवपीठ के चलते ही इस स्थान का नाम एकेश्वर पड़ा होगा। स्थानीय नागरिक और जानकार पंकज पांडेय बताते हैं कि शिवलिंग पर जो भी गंगाजल, दूध आदि चढ़ाया जाता है वह पातल गॉव में एक स्थान पर आज भी बूंद, बूंद में टपकता है, जिसे जलहरी कहा जाता है। उनके अनुसार गाँव में जो भी गाय दुधारू होती है, उसका दूध सर्वप्रथम जलहरी को अर्पित किया जाता है। उन्होंने रोचक जानकारी देते हुए बताया कि पूरे इलाके में पहले ठीक 12 बजे के बाद कोई भी किसान बैल को जोह पर नहीं रखता था, अगर कोई भूलवंश ऐसा करता था तो महादेव स्वयं बैलों को जोह से खोलने के लिए आवाज लगाते थे। इसलिए भगवान एकेश्वर महादेव को बोलता हुआ भोलेनाथ भी कहा जाता है। श्री पांडे ने पातल गॉव के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि पातल गाँव हमारे आराध्य देव एकेश्वर के पांव तले है। पातल का अर्थ पांव तले होता है, इसलिए इसका नाम पातल पड़ा।
उन्होंने बताया कि गोरखाओं ने जब गढ़वाल पर आक्रमण किया था तो वह एकेश्वर महादेव की शरण में आए थे। दो गते बैसाख को एकेश्वर में मेला लगता है, जिसे स्थानीय बोली में बिखोत कहते हैं। मेले में हज़ारों की भीड़ महादेव के दर्शन को उमड़ती है। कहा जाता है की पहले मन्दिर और मन्दिर प्रांगण में महिलाएं अपने पति के साथ संतान के लिए रातभर दीप जलाकर खड़ी रहती थी और भगवान भोलेनाथ की स्तुति करती थी। धीरे, धीरे इस परंपरा ने मेले का रूप ले लिया। इस दिन आसपास के गांवों के लोग खेत मे उगे नए अनाज का भोग शिव को लगाते हैं। मन्दिर से कुछ दूरी पर ठंडे पानी की जल धारा बहती है, जिसे स्थानीय भाषा में मंगारा नाम से पुकारा जाता है। कहा जाता है कि मेले में जितनी अधिक भीड़ उमड़ती थी, उतनी ही जलधारा का पानी बढ़ जाता था। यह देखने मे वास्तु कला का बेहतर नमूना है। इसका निर्माण सदियों पहले किया गया है और इसके निर्माण में तराशे गए भारी भरकम आकर्षक पत्थरों का उपयोग किया गया है। पौड़ी जनपद का एकेश्वर कस्बा प्रकृति के गोद में बसा एक रमणीय पर्यटक एवं धार्मिक स्थल के साथ ही अपनी उच्चस्तरीय शिक्षा के लिए जाना जाता है। एकेश्वर महादेव आसपास के सैकड़ों गांवों के लाखों लोगों के साथ ही, देश, विदेश के हजारों श्रद्धालुओं के आस्था का केंद बिंदु है, और अपनी मनोकामना लेकर भगवान एकेश्वर महादेव के दर पर शीश नवाने आते हैं। यहां से हिमालय की लंबी श्रृंखलायं सबका मनमोह लेती है। सड़क मार्ग से जुड़ा होने के कारण यहां आसानी से पहुँचा जा सकता है। सबसे नजदीक रेलवे स्टेशन कोटद्वार है। यहां से बस, टैक्सी, से आसानी से पहुँचा जा सकता है। एकेश्वर यात्रा के दौरान आपको प्रकृति के अदभुत नज़ारों का दीदार होगा। कोटद्वार से यहां की दूरी लगभग,75 से 80 किमी है। सतपुली से एकेश्वर की दूरी लगभग 25 किमी है। देहरादून , ऋषिकेश होते हुए भी यहां आसानी से पहुँचा जा सकता है। एक रास्ता देवप्रयाग, व्यासघाट होते हुए सतपुली तो दूसरा रास्ता सिलोगी गुमखाल होते हुए एकेश्वर पहुँचा जा सकता है। श्रीनगर, पौड़ी होते हुए भी एकेश्वर पहुँचा जा सकता है। ज्वाल्पा से एक किमी की दूरी पर कठमोलिया पुल से सतपाली, जन्दादेवी होते हुए एकेश्वर पहुँचा जा सकता है। यहाँ की यात्रा बेहद सुगम है। एकेश्वर में ठहरने के लिए पंचायत भवन, मन्दिर धर्मशाला उपलब्ध हैं। मन्दिर समिति दूर दराज से पहुँचे श्रद्धालुओं को मन्दिर धर्मशाला में रहने की पूरी व्यवस्था करती है। आधा किमी की दूरी पर ही एकेश्वर बाज़ार है, जहां आपको हर आवश्यक वस्तु उपलब्ध हो ज़ायगी। यहाँ होटल्स, रेस्टोरेंट के साथ ही यातायात की सुविधा उपलब्ध है।