महीनों पहले से घुघति त्यार का रहता था इंतज़ार
पहाड़ो का वो जीवन कितना नैसर्गिक था जिसमे बच्चें सिर्फ़ खाने-पीने, खेलने और स्कूल जाने का ही काम करते थे। घर में सिर्फ पिताजी ही नौकरी-चाकरी के लिए बाहर निकलते थे। इज़ा धिनाली, घास के लुटे, माँग(बंजर खेत) से भी कुछ पैसे बनाके घर चलाने में सहयोग देती। गरीबी का आलम यह रहता की पिताजी जरूरत को पूरा करते करते कभी सकूँ से शायद ही बैठते। लेकिन मज़ाल कभी बच्चें को इसका एहसास भी नही होने देते। खाने में मुश्किल से ही सब्जी दिखती लेकिन इसकी जगह दूध, दही, घी की अमूमन बहार ही होती। बाज़ारू चीज़े थाली में साल में एकाध बार ही दिखते थे। खास तौर से त्यौहारों का बड़ा इंतज़ार रहता। मन ही मन भाई बहिनों में खाने की चीजें क्या- क्या पकंगी घंटो बातों होती। घुघुतिया के आने पर सबसे पहले बाजार से पिताजी एक हफ्ता पहले कडुवा तेल, मिसरी का धुशा, गुड़ थैले में भर ले आते। साथ में सख्त हिदायत भी रहती की ये थैला सिर्फ घुघुतिया के दिन ही खुलेगा। ये सुनकर हम सबकी उत्सुकता और बढ़ जाती। पिताजी के इधर-उधर होते ही हम भाई -बहिन थैले को बाहर से ही पीडा लेते की इसके भीतर क्या होगा। घुघुतिया में इज़ा पिछली रात से ही मांस भीगा देती। मांस के बड़े व मडुवा बेडु की रोटी का नाम सुनकर ही मुह में पानी आ जाता। दिन में ही घुघुते बनाना शुरू कर देते। सबसे पहले पिताजी पांच परमेश्वर के नाम से पांच घुघुते बनाकर तिमूल के पत्तो में अलग रख देते। फिर हम सब भाई-बहिन धूप में तांबे व पीतल की पारदों में भर भर कर घुघुते बनाते। सभी अपने-अपने घुघुते की संख्या बताकर हिसाब लगते रहते। छिपकर भी हम अपनी संख्या बढ़ाते रहते , जिससे अधिक घुघुते की माला गच्छया सकते। घुघूतो में दाड़िम, अनार, तलवार, पूरी, कटोरा की आकृतियों में एक प्रकार का कम्पटीशन हो जाता। शाम ढलने से पहले आग में सगड़ घेरकर सब बैठ जाते। इज़ा सबसे पहले पूरी, बड़े और कुछ घुघुते तल कर मंदिर में ईस्ट देव के लिए रख देती। आज भी घरों में कोई भी नई चीज आती है तो सबसे पहले घर के सालिग्राम, इसठदेव के मंदिर में चढ़ाया जाता है। मंदिर में रखते ही चोरी -छिपे उसका स्वाद चखने को हम लालायित रहते। फिर घुघूतो की लंबी -चौड़ी माला बनाती। मोटे धागे या कुथल ,भांग की डोरी पिताजी बनाते ,जिससे वो अधिक घुघूतो का भार उठा सके। घुघूतो कि माला की बीच मे घर की ही नारंगी के पेड़ का सबसे बड़ा दाना गच्छया जाता । और घर वाले कहते सुबह अगर जल्दी नही उठे तो घुघुते उड़ जाएंगे। इज़ा घुघुते की माला को अनाज के भकार में रख देती। सुबह जल्दी उठकर कौवों को बुलाने की फसक करते करते कब नींद आ जाती , पता नही चलता। फिर बारी आती किसके घर में कौवा पहले आकर घुघुते खाता है, जहाँ कौवा दिखा उसके सामने ही चले जाते। कौवा डर के दूर भाग जाता। फिर पिताजी ही कौवे के लिए अलग रख हमें भाग देते, जिससे वो डरे नही। बस कौवे के खाते ही हमारे खाने की बारी आ जाती।
वो समय याद आते हो आज भी उसी बचपन मे खो जाने का मन करता है। महीनों तक तवे में रखकर घुघुते खाते, खजूरे खाते और लगता ये सिलसिला कभी खत्म ही नही होगा।
सारे रिस्तेदारों के नाम भी छोटी-छोटी माला बनाकर रख दी जाती। काम-काज के समय उनके मिलने पर पिठ्या के साथ घुघुतों की माला थमा दी जाती।
कितनी फिक्र रहती थी अपनों की कुशलक्षेम की और वो भी बिल्कुल निश्वार्थ भाव से।
आज भी लगता है बाज़ारी भाव से वो भाव कही अच्छा था। जहाँ हमारी संस्कृति,संस्कार, शिक्षा हमारे भावो को सहज ही समझ जाती और हमें खुश रहने के लिए अलग से कोई आयोजन नही करना पड़ता। हमारे ये त्यौहार अगणित खुशी लेकर आते और साथ में हम इनके फिर से आने की इंतजारी में रहते।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ खेती,बेरीनाग, पिथोरागढ़
( सांस्कृतिक, रचनाकार,वैज्ञानिक लेखन एवं शिक्षण)