राजनैतिक के कैनवास में मंद पड़ती उम्मीद की रेखाए
आज लोग अपने पसंदीदा दल, संगठन, व्यक्ति के अच्छे होने की ज़िद नही पकड़ते हैं। यही बात कुछ साल पहले तक नही थी। अपने पसंदीदा चेहरो के बारे में लोग उनके अच्छे होने की ज़िद करते थे, यहाँ तक कि उनके लिए बुरा कहने वालों के लिए बाहें चढ़ा लेते थे। राजनैतिक दलों एवं व्यक्तियों के प्रति लोगों की उम्मीद बनी रहती थी। अमुक दल अच्छा है या ढिमुक अच्छा नही है। कम से कम अपने- अपने चश्मे से अंतर आंका जाता था। लेकिन अब हालात बदले है।
लगभग सात दशकों से अधिक के कालखंड मे राजनैतिक दलों, संगठनों के प्रति ये सोच प्रश्न पैदा करती है। लोगों में ये आम होता जा रहा है कि नेतागण अब अपने व्यवहार व चरित्र से विश्वास कायम नही कर पा रहे है। लोग अब अपने पसंदीदा दलो, नेताओं के प्रति उनके अच्छे होने की ज़िद नही करते।
राजनीति में सब एक जैसे ही है कहकर मन की भड़ास निकल विराम लगा देते है। जनता में भरोसे का यह विराम राजनैतिक गति में एक ठहराव लाता हैं। जब एक दल, संगठन से निराशा होती या उम्मीद कम होती तो लोग दूसरे दलों से आशा रखते। लेकिन अब तो लोगो की उम्मीदों पर राजनैतिक कैनवास में धूल जमती दिख रही है।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ ,उत्तराखंड
स्वतंत्र क्रिएटिव लेखक