G-KBRGW2NTQN प्रकृति लगी नई-नई – Devbhoomi Samvad

प्रकृति लगी नई-नई

धरती के सीने में उगी
हरी-भरी घास नई-नई
हिमालय से अवतरित नदी
की पानी की धार नई-नई
चिड़ियों की चड़चड़ाहट में
स्वरों की विविधता नई-नई
मिसरी सी मिठास घोलती कानों में
नाद-अनुनाद,गीत-संगीत
की बोल नई- नई
पेड़ लकदक हरियाली ओढें
फल-फूल लदे सो लगे नई -नई
खुसबू विखेरते फूल जहां में
सुंगंध लगती नई-नई
कीट-पतंग,
जलचर-नभचर
चले धरा नापने लगे नई-नई
कलियाँ आतुर फूल बनने को
फूल,फल बने लगे नई-नई
फल से बीज झांके बाहर
लगी बसुंधरा नई-नई
गागर से सागर तक दिखे
भरे जलाशय,पोखर,ताल नई-नई
ठंडक हवा छुए बदन
एहसास लगे नई-नई
श्रृंगार कर धरती दुल्हन लगी
आसमां दूल्हा लगे नई-नई
मन प्रफुल्लित, स्वस्थ तन-बदन
खुशी चहुओर लगे नई-नई
ऋतुराज बसंत उठ ख़ड़े खिले
हर कण, शंकर लगे नई-नई

गहरी जड़ें, बट-वृक्ष ख़ड़े
झड़ी नही मिट्टी इनमें
इसीलिए हरे-भरे,
सूखने ना दे पानी इनका
सींचे संस्कृति,संस्कारों से
तभी प्रकृति लगे सदा नई-नई।

प्रेम प्रकाश उपाध्याय “नेचुरल” उत्तराखंड

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