ग़ज़ल: परवरदिगार
कैसे कहूँ बे दाद नही मिला
चला था मुशफिर मंज़िल नही मिला।
हर घड़ी खंड काल पुर्ण में
आग़ाज़ रहा मगर अंजाम नही मिला।
फिक्र किये बगैर फ़र्ज़ चलता रहा
विराम अल्प नज़र में आफताब नही मिला।
सब-कुछ किया शागिर्द अदम मिला
ना किया होता कुछ, इताब जो मिला।
था पलड़ा भारी मगर हिसाब नही मिला
रहनुमाई रही नही जवाब इक़बाल सवाल मिला।
सुने थे अफसाने बड़े-बड़े गोया किस्से कहानियों में,
चिपके रह गए शब्द किताबों में ,जमीं पर उतरकर गुलज़ार नही मिला।
बिठाया था ऊपर,सबसे ऊपर घर-अंजुमन में,
फिर नीचे से ये अल ऊपर क्यों नही मिला।
उथल-पुथल रहीं दुश्वारियां कुछ इधर,
टकटकी लगाये बरबक्स इख्तियार नही मिला।
गुजरा भी था इधर से मुड़कर नही झांका
थी जमीं पर चाँदनी,मयस्सर फलक पर चाँद नही मिला।
कही-सुनी से बढकर जाना-समझा था तुझे
दिल-दिमाग, फितरत से गोया इसीलिए तो नही मिला।
आस लगाए रखा उम्र के तमाम बसंत फिर भी,
कोयल कूकी होगी जरूर मगर वो बसंत नही मिला।
हज़ूर मत कर इजहार इताब का,
बेनसीब शक-शिकवा करेगा अब उस पर, जो नही मिला।
तेरी रहमत कहा ठहर गयी जो
उधर से इधर के हिस्से में सिर्फ फांका मिला।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ बागेश्वर
उत्तराखंड