पुस्तक समीक्षा : गढ़वाली साहित्य भंडार ने श्रीवृद्धि कर रहे नेगी दा
दिनेश शास्त्री
देहरादून।
गढ़ रत्न नरेंद्र सिंह नेगी का रचना संसार में लगातार वृद्धि हो रही है। खुचकंडी, गाण्यु की गंगा स्याण्यू का समोदर, मुट बौटिक रख आदि रचनाओं के बाद उनकी ताजा कृति “अब जबकि” शीर्षक से प्रकाशित हुई है। नेगी जी की इस कविता पोथी में कुल 37 छंद मुक्त कविताएं हैं। उनकी छंदबद्ध रचनाओं में जो भाषा, शिल्प का चमत्कार है, इस कृति में उसका अलग विस्तार नजर आता है। देहरादून की विनसर पब्लिशिंग कम्पनी ने इसे प्रकाशित कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है और आजकल दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में यह कविता पोथी को प्रदर्शित भी किया गया है। प्रवासी उत्तराखंडी भी इसे हाथोंहाथ ले रहे हैं। विनसर के स्टॉल पर इस कविता पोथी के बारे में पाठकों ने खासी दिलचस्पी दिखाई है।
नेगी जी की इस कविता पोथी में पहली कविता देखणू छऊं है तो उसके बाद इफ्तखार हुसैन झकझोरती है कि क्यों हमारा समाज अपने मूल को त्यागकर बाहरी आलंबन के फेर में फंस गया है। समाज में आ रहे बदलाव को नेगी जी ने कटाक्ष के तौर पर पिरोया है। वैसे उनकी इस कविता को कई मौकों पर सुना भी गया है।
बाटा, धुंद, देणु ह्वेजा, चुनौ को चक्कर, जेठंडो, डालू होंदो, गरीब दाता, नेता दिदा, तिडाल, किलै, मौ मदद, गारंटी नी, डट्यूं छोँ मि आदि तमाम छंद मुक्त कविताएं न सिर्फ पठनीय हैं बल्कि वैचारिक धरातल पर सोचने को विवश भी करती हैं।
कविता पोथी की शीर्षक कविता अब जबकि को पढ़िए और खुद विचार कीजिए कि हम कहां खड़े हैं?
अब, जबकि
उमर चार बिसि चार ह्वेगे
दानु सरेल आत्मा पर भार ह्वेगे
नाति नतेणों कि भरमार ह्वेगे
अब, जबकि
स्याणि बिमार अर गाणि लाचार ह्वेगे
रूप रंग जोश ज्वनि सब धार पार ह्वेगे
जवानिमा वींको लुछयूँ मेरो एटीएम
मशीनमा घिसघिसी तारतार ह्वेगे,
अब, जबकि
बैंक खाते जमापूँजि चोरै सि चार फरार ह्वेगे
गौं बजार॒म उधार ही उधार ह्वेगे
तब मेरा खालि कीसा उन्द हात कोची
बोलि मेरि वीं धर्म्यात्ठि घरवाव्ठिन
हे जी जरा सूणा धौं इना
घरमा बैठबैठी जल्ड़ा जमगेनि तुम फर
कुछ काम धन्दा किले नि छाँ कना।
यह एक तरह से नेगी जी ने आईना दिखाया है। नेगी जी के सृजन में लोक समाज में माता पिता की उपेक्षा से जुड़े विषयों पर केंद्रित कविताओं से शुरू हुआ यह सिलसिला डट्यू छों मि कविता तक पहुंच गया है निसंदेह छंद मुक्त कविता भी उतनी ही असरदार हो सकती है जितनी छंदबद्ध कविता करती है, यह हमारे गीतकारों ने सिद्ध किया है तो नेगी जी भी पीछे नहीं हैं।
एक बात और, नेगी जी की कविता उनके गीतों की तरह ही हैं, वही मिठास और वही कटाक्ष। मौ मदद तब तक जब तक वेकी सैणी बचीं राई हमें बहुत कुछ सोचने को विवश करती है। फिर निश्छल मदद की बात तो खारिज हो जाती है। कहना न होगा कि नेगी जी अपने अंदाज में इस कविता पोथी के जरिए बहुत कुछ कह गए हैं। विनसर ने इस प्रयास से पुस्तक प्रेमियों को एक और भेंट दी है, उम्मीद की जानी चाहिए कि यह सिलसिला आगे और अधिक गति से सामने आएगा। नेगी जी ने गढ़वाली साहित्य भंडार में श्रीवृद्धि करने में अग्रणी पंक्ति में हैं। इसके लिए साधुवाद।