छब्बे बनने के फेर में दुबे भी नहीं रह पाये
चौबे जी छब्बे बनने जायें और दुबे भी नहीं रह पायें तो इससे क्रिकेट और राजनीति के हस्र को समझा जा सकता है। जिस तरह क्रिकेट में अंतिम गेंद फेंके जाने तक रोमांच की चरम स्थिति रहती है, कमोबेश वही स्थिति राजनीति में भी होती है। राजनीति की बिसात पर इसी तरह की एक घटना अक्टूबर प्रथम सप्ताह में पंजाब में घटी। यह अलग बात है कि कोरोनाकाल में एक साथ चल रहे कई घटनाक्रमों के बीच यह खबर बहुत ज्यादा नोटिस नहीं हो पाई लेकिन पैनी नजर रखने वाले लोग इसे बखूबी समझ गये हैं।
हुआ यह कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के पंजाब दौरे की फीलिडंग सजाने के लिए हाल में प्रदेश प्रभारी बनाये गये उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री कोपभवन में बैठे नवजोत सिंह सिद्धू को मनाने गये। उनका मकसद पार्टी को एकजुट करना और दिखाना था। प्रभारी की जिम्मेदारी भी यही होती है। सो हरदा पूरे मनोयोग से अपनी संगठन क्षमता का लोहा मनवाने के लिए जुटे और सिद्धू को घर से बाहर ले आये। सिद्धू तो सिद्धू ठहरे। हरदा की गुगली को सीधे बाउंड्री पार कराया तो छक्का जड़ डाला। उन्होंने अपने मिजाज के अनुरूप कैप्टन सरकार को ही समर्थन मूल्य के मसले पर निशाने पर ले डाला। सिद्धू का तर्क था कि जब हिमाचल सरकार अपने काश्तकारों को सेब का समर्थन मूल्य दिला देती है तो हमारी सरकार को किसने रोका है। बस यहीं से गड़बड़ हो गई। पार्टी को एकजुट करने के बहाने हरदा जब सिद्धू को कोपभवन से बाहर लाये तो उनकी शान में यहां तक कसीदा पड़ बैठे कि सिद्धू सड़ा हुआ मांस नहीं खाते हैं। वे खुद शिकार करके ही मांस खाते हैं। राजनीति के जानकार मानते हैं कि यदि सिद्धू कोई बदमिजाजी नहीं करते तो उनके लिए बहुत कुछ संभावनाएं खुल सकती थी लेकिन कैप्टन के साथ 36 का आंकड़ा बना कर चल रहे सिद्धू ने अपना गुबार निकाला तो हरदा भौंचक रह गये। उन्होंने सोचा था कि पार्टी को मजबूत करने की दिशा में उठाये गये इस कदम से शाबासी मिलेगी, कोशिश कुछ इसी अंदाज में हुई थी लेकिन जब आलाकमान की भृकुटी तन दिखी तो सारे किये धरे पर पानी फिर गया। अब डेमैज कण्ट्रोल की बारी थी। जो कुछ होना था, सो हो गया था। मोगा की रैली में सिद्धू को मुंह ही नहीं लगाया। फिर हरदा को प्रेस कॉन्फ्रेंस कर एलान करना पड़ा कि सिद्धू के लिए न सरकार में और न पार्टी में कोई जगह है।
तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये- अगर सिद्धू गुड़ गोबर न करते तो पंजाब में पार्टी की एकजुटता का सारा श्रेय हरदा को मिलता और वे एक बार फिर सेवादल के जमाने के जैसे कुशल संगठनकर्ता के रूप में उभरते और आलाकमान की नजर में उनका कद कहीं अधिक बढ़ जाता लेकिन इस घटना ने जितनी नकारात्मकता उभारी, उससे कुशल संगठनकर्ता का तमगा छिनता सा दिख रहा है। डेढ़ साल बाद उत्तराखंड के साथ ही पंजाब में भी चुनाव होने हैं। बड़ी उम्मीदों से कांग्रेस नेतृत्व ने हरदा को असम से पंजाब की जिम्मेदारी दी थी। पंजाब में आशा कुमारी कैप्टन के आभामंडल के आगे अपना व्यक्तित्व सिद्ध नहीं कर पा रही थी तो तुरुप के इक्के के रूप में हरदा को लाया गया लेकिन सिद्धू ने जो दंश दिया, वह कभी न भूलने वाला है। इस तरह की चोट कई बार बल्लेबाज को हिट विकेट करवा देती हैं। तभी तो कहा जाता है कि आखिरी गेंद फेंके जाने तक किसी भी मैच का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। ठीक उसी तरह पंजाब में हरदा के साथ हुआ है। इसके लिए कम से कम सिद्धू को तो माफ नहीं किया जा सकता।