मन्त्र वह हैं जिनकी रचना शब्द और ध्वनि विज्ञान के आधार पर इस तरह हुई है कि उनका उच्चारण करने से इच्छित फल प्रदान होता है। मन्त्र शब्दों का वह समूह है जिसके लगतार जप एवं उच्चारण से एक अर्थ उत्पन्न होता है। किसी विचार को बार-बार मनन करने से उसके प्रति राग उत्पन्न हो जाता है तथा इसी तरह से मन्त्र की भी पुनरावृत्ति करने से वह क्रियाशील हो जाता है।
ध्वनि कभी नष्ट नहीं होती–
शब्द शक्ति अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि विज्ञान के अनुसार हम जो भी ध्वनि प्रकट करते हैं वह ध्वनि (अर्थात उच्चारण) रूप में पूरे ब्रहमाण्ड में फैल जाती है और वहाँ काफी समय तक रहती है। अतः ध्वनि की शक्ति की सीमा हजारों मील दूर तक अपना प्रभाव डालती है।
इसलिए मन्त्र के प्रभाव में ध्वनि और जप का विशेष महत्व है। मन्त्र में लय की शुद्धता आवश्यक है, क्योंकि वह मन्त्र निरर्थक होता है जिसमें निश्चित लय या ध्वनि नहीं होती। बिना गुरु के मन्त्र शास्त्र का ज्ञान संभव नहीं है। क्योंकि मन्त्र मूल रूप से ध्वन्यात्मक है और ध्वनि का सही ज्ञान गुरु के द्वारा ही प्राप्त हो पाता है। आज ध्वनि विज्ञान (sound Electronic) बहुत से नये तथ्यों की तरफ पहुंच रहा है। उसका एक तथ्य यह भी है कि इस संसार में पैदा की गई कोई भी ध्वनि कभी नष्ट नहीं होती। वह ध्वनि इस अनंत आकाश में कहीं न कहीं किसी सूक्ष्म तल पर इकट्ठी हो जाती है। एक रूसी वैज्ञानिक कामिनयों ने हजारों वर्षों के प्रयोगों के बाद यह सिद्ध किया है कि अगर एक सद्भाव से भरा व्यक्ति / मंगलकामनाओं से भरा व्यक्ति अपने हाथों में जल का एक लोटा कुछ समय तक पकड़े रहे और कुछ एक मिनट के ध्यान के बाद उस जल को बीजों पर डाले तो यह पाया गया कि वह बीज अन्य सामान्य बीजों में डाले गए जल या एक निराश और दुःखी व्यक्ति द्वारा बीजों में डाले गए जल की अपेक्षा जल्दी हरा-भरा होता है, उसमें ज्यादा फल-पुष्प आते हैं। कामिनियो ने यह सिद्ध किया कि इस प्रक्रिया में जल में चाहे कोई भी रासायनिक परिवर्तन सिद्ध न हो पाये, लेकिन फिर भी उस जल का आत्मीक रूप बदल जाता है। उन्होंने यह कहा कि जब जल में यह रूपांतरण हो सकता है तो हमारे आस-पास के वातावरण में भी निश्चित रूप से हो सकता है। मंगल-भावनाओं से भरा हुआ मन्त्र हमारे चारों ओर गुणात्मक परिवर्तन करता है तथा इससे भरा हुआ व्यक्ति अपने आस-पास एक अलग आभा-मण्डल लिये होता है। मन्त्र तो दरअसल आभामण्डल को बदलने की क्रिया का नाम है।
मनुष्य जो कुछ बोलता है वह अपने आप में शब्द है और जब शब्द का सम्बन्ध अर्थ से हो जाता है तो सामने वाले को वह प्रभावित कर देता है। इस तरह एक दूसरे से बात करना मन्त्र ही है, क्योंकि एक निश्चित लय और सीमा में बंधे शब्दों के समूह का प्रभाव सामने वाले के मन पर पड़ता है कारण वह शब्दों के मूल और उनके अर्थों को समझता है।
विश्व के सभी देशों में सभी धर्मों के अनुयायियों में और पूरी मानव जाति में हजारों वर्षों से मन्त्र में आस्था होना इसकी विश्वसनीयता में इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। दरअसल हर एक धर्म का अपना कोई न कोई महामन्त्र है। हिन्दु, जैन, बौद्ध, इस्लाम, सिक्ख, ईसाई आदि धर्म में मन्त्र की विश्वसनीयता निर्विवाद रूप से मान्य है।
हिन्दु शास्त्र के अनुसार मन्त्र शास्त्र के अनुसार वेदमंत्रों को ब्रह्मा ने शक्ति प्रदान की थी। तान्त्रिक प्रयोगों को भगवान शिव ने शक्ति सम्पन्न किया। मंत्र को देवता का प्राण कहा गया है। मन्त्र के जाप से हमारी प्राण-शक्ति को बल मिलता है। नारद पुराण के अनुसार मन्त्र तीन प्रकार के होते हैं – स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसक लिंग मन्त्र। स्त्री मन्त्र वे हैं जिनके अन्त में स्वाहा लगा हो। जिनके अन्त में ‘हुम’ और ‘फट’ है वे पुरुष मन्त्र कहे गये हैं और जिनके अन्त में नमः लगा होता है वे मन्त्र नपुंसक लिंग कहे गये है। जब इडा (बायीं स्वास) और पिंगला (दायीं स्वास) दोनों नाड़ियों में सांस चलती है अर्थात बांया और दांया दोनों स्वर समान भाव से चलते हो तो तब सभी मन्त्र जागृत होते हैं। ऐसा माना जाता है कि युद्ध क्रियाओं में स्त्री जाति और अन्य में नपुंसक लिंग जाति के मंत्रों को सिद्ध किया जाता है। मन्त्र साधना में निश्चित दिशा की ओर मुख करके साधना करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
प्रत्येक देवी-देवता के अलग-अलग बीज-मन्त्र होते हैं। जिस प्रकार वृक्ष उत्पन्न होता है उसी प्रकार बीजाक्षर अनंत फलदायक होते हैं। मनोकामना की सिद्धि के लिए लोग मन्त्र-प्रयोग करते हैं। आत्महित-साधने के लिए परजल के अनिष्ट की भावना परिणामतः (अंततः) साधक के लिए ही अनिष्टकारक होती है।
आवश्यकता है विश्वास और धैर्य की–
मन्त्र प्रयोग से पूर्व उस मन्त्र को सिद्ध करना अथवा प्राणवान बनाना आवश्यक होता है। मन्त्र पढ़ते ही असर नहीं कर देता है, उसके लिए आवश्यकता है विश्वास और धैर्य की। मन्त्र के साथ जो क्रिया पद्धति है वह मिलकर ही एक पूर्ण मन्त्र का कार्य करती है। कई बार हमारे हाथ निस्पत्तियाँ रह जाती है प्रक्रियाएं खो जाती है। इसी तरह जब तक प्रक्रियाएं पूरी न हो तो निष्पत्ति व्यर्थ है। उसका कोई प्रयोजन नहीं निकलता। यही कारण है कि आज हमारे पास मन्त्र तो बहुत है, लेकिन उनका पूरा फल नहीं मिल पाता क्योंकि हमने कोई मन्त्र उच्चारण में पूरी प्रक्रिया/पद्धति का पालन नहीं किया। जैसे चावल, दाल अथवा आटे को रोटी बनाने की पूरी प्रक्रिया करने के बाद ही हम उनका सेवन कर पाते है तथा अपनी भूख शान्त करते हैं उसी तरह जब तक मन्त्र की विधि का पूरा ज्ञान न हो तो इच्छित लाभ प्राप्त होने में संदेह रहता है। मन्त्र साधना के लिए शुभ संकल्प, दृढ़निश्चय, अटूट श्रद्धा और गहन अभ्यास आवश्यक है। एकान्त स्थान, पवित्र मन, एकाग्रता, सात्विक आहार, सुगुप्तता तथा आचार व्यवहार की शुद्धता भी परमावश्यक है। परमात्मलीन के लिए मन्त्र जाप मन ही मन बिना प्रस्फुटन के होना चाहिए, जबकि काम्य प्रयोग के लिए मन्त्रों का उच्चाटन या प्रस्फुटन आवश्यक होता है। मन्त्र उच्चारण से विशिष्ट ध्वनि कम्पन होता है जो साधक के शरीर में ब्रह्मांड से टकराकर उसमें गुणों का संचार करते हैं।
तन्त्र का अर्थ है क्रिया। यंत्र-मंत्र का प्रयोग करने की विधि तंत्र में आती है। अतः मन्त्र-तन्त्र को क्रियाशील करने का नाम तन्त्र है।
यज्ञों का मन्त्रों से गहरा सम्बन्ध है। दरअसल सभी प्रकार के यज्ञ मन्त्रमय ही है। अलग-अलग तरह के यज्ञ उसी से सम्बन्धित मन्त्रों का प्रावधान है तथा वैसी ही आहुति उस यज्ञ के लिये दी जाती है।
‘विज्ञान भैरव तन्त्र’ में मन्त्रों की दो अवस्थायें बताई गई हैं। ‘चित्तयुक्त मन्त्र’ और ‘ध्वनियुक्त मन्त्र’। कहने का अभिप्राय है कि या तो मन्त्र मन ही मन जपना चाहिए या मन्त्र शब्दातीत हो अर्थात उच्चारित हो तथा वायुमण्डल में ध्वनित हो। इन अवस्थाओं को ही मूक-जाप तथा सस्वर जाप के नाम से जाना जाता है। मूक जाप में हमारी आन्तरिक वृत्ति पूर्णतः सक्रिय होकर सुगुप्त रूप से चेतना को जगाती है। एक विशिष्ट ध्वनि के माध्यम से असम्भव से असम्भव कार्य किया जा सकता है। डॉ- फिस्टलोव ने ध्वनि कम्पनों से शरीर स्थित परमाणुओं से कम्पन पैदा कर दिखाया है और इससे शारीरिक रोगों को ध्वनि के माध्यम से दूर करने में सफलता मिली है। ध्वनि का प्रभाव इससे भी लगाया जा सकता है कि दूर वायुयान की त्रीव ध्वनि आसपास के मकानों में दरारें डाल देती है।
विविध मन्त्रों के सिद्ध करने की संख्या अलग-अलग होती है। कुछ मन्त्र विशेष पर्व या विशिष्ट दिवसों पर ही सिद्ध किए जाते हैं। कुछ मन्त्र स्वयं सिद्ध माने जाते हैं। इन मन्त्रों में ऋषि-मुनियों और सिद्ध पुरुषों ने शक्तियाँ स्थापित कर दी है। क्रमश:
लेखक- ज्योतिषाचार्य