G-KBRGW2NTQN अभी भी शाश्वत है भारतीय संस्कृति का नवसंवत्सर – Devbhoomi Samvad

अभी भी शाश्वत है भारतीय संस्कृति का नवसंवत्सर

राजीव पंत
प्रत्येक संस्कृति के अनुसार नववर्ष अलग-अलग समय में मनाया जाता है। हमारे आदिकाल से समय को दिन, महीने और वर्ष में विभाजित करने की प्रथा रही है। अत: हमारे जीवन में प्राचीन ग्रंथों में बताये संवत्सर की वैज्ञानिकता आज भी शाश्वत है। ग्रंथों में संवत्सर की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि संवत्सर एक चक्र है। बारह भागों में बांटा गया, 360 अंशों के इस चक्र से सर्दी गर्मी और वर्षा रूपी तीन नाभियां हैं। अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार नववर्ष वर्तमान में पहली जनवरी से मनाया जाता है। पूर्व के तीन प्रकार के अंग्रेजी कलेंडर में बार-बार बदलाव होता रहा है और उस समय के राजाओं-तानाशाहों ने अपने-अपने तरीके से अपने मतों से कलेंडर की तिथियां वर्ष बताये, जो पूर्णत अवैज्ञानिक रहे।

कोई भी कलेंडर वैज्ञानिकता में खरा नहीं उतर पा रहा था। प्राचीन रोमन कलेंडर दस माह का ही होता था। जो मार्च से शुरू होता था फिर इसमें दो माह और जोड़े गये। तदुपरांत जूलियन वर्ष जूलियस सिजर द्वारा प्रारंभ किया गया था तथा ऑगस्टस ने इसे परिष्कृत किया। इसके बाद जूलियन वर्ष की कमियों को दूर करने के लिए 1582 में पॉप ग्रेगोरी 13वें ने ग्रेग्रेरियन वर्ष की अवधारणा रखी। यह वर्ष पद्धति विश्वभर में लागू करा दी गयी। हां जो चर्च पहले जनवरी से नया वर्ष मनाते थे, उनमें से कुछ देश जैसे इटली, पुर्तगाल, रूस आदि अपने नववर्ष को 14 जनवरी को मनाते हैं।

भारत में धर्म, जन्म और सम्प्रदाय की परम्परा अनुसार कई तरह के संवत्सर प्रचलन में हैं। इन अनेक संवत्सरों के प्रचलन के बावजूद जो संवत सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ तथा आज जो प्रचलन में है वह है विक्रम संवत। हमारे सभी पर्व त्योहार विक्रम संवत पर आधारित गणना के अनुसार ही मनाये जाते हैं। आजादी के बाद सरकार ने राष्ट्रीय कलेंडर के रूप में शकसंवत को स्वीकार किया है। विक्रम संवत में सूर्य और चंद्रमा दोनों की गति का ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि समय-काल में संशोधन करके हमरा पंचांग पूर्णतय वैज्ञानिक और सही गणना करने में सार्थक है। इसका श्रेय आर्यभट्ट को जाता है, जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में आर्यभट्टीय ग्रंथ लिखा और वेदों के ज्ञान, विलक्षण बुद्धि तथा ईश्वरीय ज्ञान की मदद से प्रथ्वी की परिधि, उसकी लम्बाई, चौड़ाई, सूर्य, चंद्रमा व ग्रहों की दूरी, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण के समय आदि का सटीक विश्लेषण कर दिया। इसकी श्रेष्ठता और वैज्ञानिकता आज भी पूर्णत: प्रमाणिक है।

हमारा भारतीय नवसंवत्सर चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा से आरंभ होता है। यह तिथि अंग्रेजी कलेंडर के हिसाब से स्थिर/स्थाई नहीं होती वरन् खगोलीय पिंडों की स्थिति, उनकी गति और प्रभाव के आंकलन अनुसार हर वर्ष निर्धारित की जाती है। यही कारण है कि पूर्णिमा और अमावस्या अपनी निश्चित तिथि पर आती है। इसी कारण छह ऋतुएं भी निश्चित समय पर आती हैं। भारतीय संवत्सर में राशियों का बहुत प्रभाव है। प्रत्येक 30 अंश पर एक-एक राशि होती है, जिससे काल की गणना आसानी से होती है। 27 तारा समूह को नक्षत्र का नाम दिया गया, शुक्ल पक्ष में चन्द्रमां जिस नक्षत्र पर जाकर पूर्ण होता है, उसी नक्षत्र के आधार पर माह का नाम रखा गया है। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी कलेंडर का प्रथ्वी, चंद्रमा और सूर्य की गति के साथ कोई संबंध नहीं है।
हमारे यहां काल के विभाजन के लिए समय-समय पर अनेक संवत्सर प्रचलन में रहे हैं, जो सृष्टि के निर्माण कार्य से प्रारंभ होकर आज तक गतिशील हैं। जहां सतयुग, त्रेता और द्वापर युग के संवत्सर के नाम ऋषि, मुनि, महापुरुषों के नामपर रखे गये थे। हमारे देश में मैकाले की शिक्षा पद्धति से उपजे इतिहासकारों ने भारत के इन महापुरुषों के नामों को काल्पनिक मात्र बताया। इसका कारण था भारतीय संस्कृति और वैज्ञानिकता जो मजबूत सिद्धांतों और गणनाओं पर आधारित था, उनको  रौंदना या समाप्त करना। उस मैकाले का मानना था कि भारतीयों को गुलाम करने के लिए उनकी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास को समाप्त करना जरूरी है। हमारे भारतीय संवत की उत्पत्ति यूं कहें कि परमात्मा ने सृष्टि काल से ही कर दी थी।
आज की गणना करें तो सृष्टि के एक अरब 96 करोड़ आठ लाख 53 हजार 120 वर्ष पूरे हो गये हैं। यह कोई कपोल-काल्पनिक नहीं वरन् पूर्णत: गणित पर आधारित व प्रमाणिक है। पृथ्वी अपना एक चक्र 24 घंटे में पूरा करती है। 24 घंटों का एक दिन-रात होता है। 30 दिन का एक मास और 12 मास का एक वर्ष होता है। चार लाख 32 हजार वर्ष का एक कलयुग होता है। इतने ही वर्षों को जोड़ देने पर द्वापर युग (864000 वर्ष) फिर त्रेता युग (1296000 वर्ष) और पुन: 432000 वर्ष इसपर जोड़ देने पर सतयुग (1728000 वर्ष) का होता है।
इन चोरों युगों को एक चतुर्युग कहा गया है, इन सबका योग 4320000 वर्ष अर्थात एक चतुर्युगी के 43 लाख 20 हजार वर्ष होते हैं। ऐसे 71 चतुर्युग का एक मनवंतर होता है। अभी छह मनवंतर बीत चुके हैं और सातवां मनवंतर चल रहा है। उसकी भी 27 चतुर्युगी बीत चुकी है। हमारे भारतीय ऋषि, मुनि, पंडित आज तक पूरी सृष्टि की गणना किसी भी शुभ कार्य के आरंभ करने पर करते हैं, जिसको संकल्प पाठ कहते हैं। आज इसी कारण एक-एक दिन की गणना को जोड़कर हमारी संस्कृति शाश्वत है।
लेखक वरिष्ठ ज्योतिषाचार्य हैं

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