प्रत्येक संस्कृति के अनुसार नववर्ष अलग-अलग समय में मनाया जाता है। हमारे आदिकाल से समय को दिन, महीने और वर्ष में विभाजित करने की प्रथा रही है। अत: हमारे जीवन में प्राचीन ग्रंथों में बताये संवत्सर की वैज्ञानिकता आज भी शाश्वत है। ग्रंथों में संवत्सर की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि संवत्सर एक चक्र है। बारह भागों में बांटा गया, 360 अंशों के इस चक्र से सर्दी गर्मी और वर्षा रूपी तीन नाभियां हैं। अंग्रेजी कलेंडर के अनुसार नववर्ष वर्तमान में पहली जनवरी से मनाया जाता है। पूर्व के तीन प्रकार के अंग्रेजी कलेंडर में बार-बार बदलाव होता रहा है और उस समय के राजाओं-तानाशाहों ने अपने-अपने तरीके से अपने मतों से कलेंडर की तिथियां वर्ष बताये, जो पूर्णत अवैज्ञानिक रहे।
कोई भी कलेंडर वैज्ञानिकता में खरा नहीं उतर पा रहा था। प्राचीन रोमन कलेंडर दस माह का ही होता था। जो मार्च से शुरू होता था फिर इसमें दो माह और जोड़े गये। तदुपरांत जूलियन वर्ष जूलियस सिजर द्वारा प्रारंभ किया गया था तथा ऑगस्टस ने इसे परिष्कृत किया। इसके बाद जूलियन वर्ष की कमियों को दूर करने के लिए 1582 में पॉप ग्रेगोरी 13वें ने ग्रेग्रेरियन वर्ष की अवधारणा रखी। यह वर्ष पद्धति विश्वभर में लागू करा दी गयी। हां जो चर्च पहले जनवरी से नया वर्ष मनाते थे, उनमें से कुछ देश जैसे इटली, पुर्तगाल, रूस आदि अपने नववर्ष को 14 जनवरी को मनाते हैं।
भारत में धर्म, जन्म और सम्प्रदाय की परम्परा अनुसार कई तरह के संवत्सर प्रचलन में हैं। इन अनेक संवत्सरों के प्रचलन के बावजूद जो संवत सबसे अधिक लोकप्रिय हुआ तथा आज जो प्रचलन में है वह है विक्रम संवत। हमारे सभी पर्व त्योहार विक्रम संवत पर आधारित गणना के अनुसार ही मनाये जाते हैं। आजादी के बाद सरकार ने राष्ट्रीय कलेंडर के रूप में शकसंवत को स्वीकार किया है। विक्रम संवत में सूर्य और चंद्रमा दोनों की गति का ध्यान रखा जाता है। यही कारण है कि समय-काल में संशोधन करके हमरा पंचांग पूर्णतय वैज्ञानिक और सही गणना करने में सार्थक है। इसका श्रेय आर्यभट्ट को जाता है, जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में आर्यभट्टीय ग्रंथ लिखा और वेदों के ज्ञान, विलक्षण बुद्धि तथा ईश्वरीय ज्ञान की मदद से प्रथ्वी की परिधि, उसकी लम्बाई, चौड़ाई, सूर्य, चंद्रमा व ग्रहों की दूरी, सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण के समय आदि का सटीक विश्लेषण कर दिया। इसकी श्रेष्ठता और वैज्ञानिकता आज भी पूर्णत: प्रमाणिक है।
हमारे यहां काल के विभाजन के लिए समय-समय पर अनेक संवत्सर प्रचलन में रहे हैं, जो सृष्टि के निर्माण कार्य से प्रारंभ होकर आज तक गतिशील हैं। जहां सतयुग, त्रेता और द्वापर युग के संवत्सर के नाम ऋषि, मुनि, महापुरुषों के नामपर रखे गये थे। हमारे देश में मैकाले की शिक्षा पद्धति से उपजे इतिहासकारों ने भारत के इन महापुरुषों के नामों को काल्पनिक मात्र बताया। इसका कारण था भारतीय संस्कृति और वैज्ञानिकता जो मजबूत सिद्धांतों और गणनाओं पर आधारित था, उनको रौंदना या समाप्त करना। उस मैकाले का मानना था कि भारतीयों को गुलाम करने के लिए उनकी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास को समाप्त करना जरूरी है। हमारे भारतीय संवत की उत्पत्ति यूं कहें कि परमात्मा ने सृष्टि काल से ही कर दी थी।
लेखक वरिष्ठ ज्योतिषाचार्य हैं