मेरा पहाड़ का गांव कु बाटू
विजय पंवार
आज पहाड़ी चाहे बड़ी-बड़ी कोठियां बनाकर मैदानी क्षेत्रों में बस गये हों, लेकिन पहाड़ के वह टेडे-मेड़े रास्ते आज भी शायद राह देख रहे हैं। उन पर चलने वाले राहगीरों का। उन घोड़ा-खच्चर की टक-टक करती आवाज का जिन घोड़ा-खच्चरों पर क्लींटलों वजन का सामान लदा होता था और कभी वह टक-टक की आवाज करते चलते थे तो कभी इन्हीं राहों पर थकहार कर रूक जाते थे। जी हां समय के साथ-साथ यह सभी राह विरान हो गये यह कहैं तो गलत नहीं होगा की जैसे पहाड़ों के गांव विरान होगये वैसे ही पहाड़ के टेडे-मेड़े रास्ते भी वीरान हो गये। क्लीयासौड जो धारीदेवी की वजह से बेहद मशहूर है। प्रत्येक दिन धारी देवी के दर्शन को हजारों लोग आते हैं । क्लीयासौड से दर्जनों गांव का पैदल सफर का प्रारंभ होता है। दिल्ली, देहरादून से लोग अपने घर आते थे तो उनके बस का सफर क्लीयासौड में खत्म हो जाता था। इस लेख के माध्यम से आपको ले चलते हैं क्लीयासौड से तिमली भरदार के पैदल मार्ग के सफर पर तिमली जाने वाले मुसाफिर क्लीयासौड में उतरते वहां पर एक गुसाई जी का होटल होता था। मुसाफिर इस होटल में मुंह हाथ धोते चाय पिते और खाना खाकर थोड़ा सुसताते। चना इलाइची खरीदते और अपना कुछ भारी सामान गुसाई जी की दुकान में रख देते गुसाई जी के खच्चर हुआ करते थे। मुसाफिर वहां अपना सामान रखते और गुसाई जी खच्चरों में सामान लादकर मुसाफिर के गांव पहुंचा देते। क्लीयासौड में मुसाफिर सुस्ताने के बाद मुंह हाथ धोता और पीठ में कुछ खाने-पीने का सामान रखकर चल पड़ता अपने गांव के दुर्गम रास्ते पर। क्लीयासौड़ से उतराई का रास्ता धारी देवी के मंदिर तक को पण्राम करके मुसाफिर धारीपुल पार करता जो इतना हिलता था कि कमजोर दिल वाला इंसान बैठ-बैठकर उस पुल को पार करता। फिर धारी गांव आता। इसी गांव के लोग धारी देवी के पुजारी हैं मान्यता है कि धारी देवी धारी गांव के एक बुजरुग के सपने में आई थी और मां ने कहा था कि नदी के पास एक गुफा में मेरी मूर्ति है उसे नदी के पार टिले में स्थापित करो वह बुजुर्ग मां धारी के लाया टिले में स्थापित किया। तभी से धारी गांव के लोग धारी मां के पुजारी हैं। धारी गांव से चड़ाई सुरू होती है आम के जंगल में उगे पेड़ मुसाफिरों को ढंडी हवा देते हैं उन्हीं आम के जंगलों के बीच एक कुदरती पानी का श्रोत है। जो कभी खत्म नहीं होता उस श्रोत का आकार भी ऊंगली के बराबर है कहा जाता है जब पांडव अपने अन्त समय में हिमालय की तरफ जा रहे थे तो कुन्ती माता को प्यास लगी तब महाबली भीम ने पहाड़ पर अपनी ऊंगली भारी जिससे पानी आने लगा। मुसाफिर पानी पीने के बाद आगे बड़ता है और सौंरा गांव पहुंच जाता है। जहां गदेरे में गैरोला जी की चाय की दुकान होती थी मुसाफिर चाय पिता और गदेरे में मुंह हाथ धोकर आगे के सफर पर चल पड़ता। खड़ी चडाई माथे पर पसीना और धीरे-धीरे कदम आगे बड़ता सूरज डल जाता। जंगली जानवरों का भय सताने लगता फिर भी लक्ष्य हर हाल में अपने गांव पहुंचना था। चलते-चलते स्यारी आ जाता है। स्यारी के बाद मुसाफिर के सांस में सांस आती क्योंकि घनघोर जंगली रास्ता उसने पूरा कर दिया था। उसके बाद वही छोटे गांव आते हैं। थोड़ा अंधेरा होने लगता है चिड़ियों की मधुर आवाज आने लगती है। अंधेरा होने से पहले मंजिल की तरफ पहुंचा जाय इसी प्रयास में मुसाफिर लम्बे लम्बे कदमों से आगे बढ़ने लगता है फिर सौंराखाल आता है। मुसाफिर शब्जी खरीदता है और अपने अंतिम पड़ाव की ओर चल पड़ता है फिर कुरमखाल आता है उसे गांव के दर्शन होते हैं वह मठेणा मां पण्राम करता है और टार्च की रोशनी के सहारे पहुंच जाता है अपने गांव तिमली। यह लेख लिखने का मकसद सिर्फ यह है। हम अपने पुर्वजों के संघर्ष को हमेशा याद रखे और कभी अपने गांव को ना भूले अपने बच्चों को भी बताए की यह था हमारे पूर्वजों का संघर्ष और जो भी इंसान इन रास्तों से गुजरा हो वह इन रास्तों को कभी न भूले क्योंकि कही बार इन रास्तों पर हमारे पसीने की कुछ बुंद पड़ी है। अब पहाड़ पर मोटर मार्ग बन गये हैं पर यह जंगल से गुजरे टेडे मेडे रास्ते हमारी पहचान हैं।