हंगामा है क्यों बरपा?
संस्कार की बात करना गुनाह है क्या?
देहरादून। मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने नई पीढ़ी को संस्कारित जीवन की सीख क्या दी कि एक तबका उनके खिलाफ खड़ा हो गया। आलोचना करने वाले बेशक अपने बच्चों को संस्कार की शिक्षा देते हों, लेकिन विरोध के लिए विरोध की संस्कृति ने समाज को रसातल में ही धकेला है, यह निर्विवाद है, चाहे आप महिला अधिकारों के झंडाबरदार ही क्यों न हों। सीएम तीरथ सिंह ने बुधवार को एक संगोष्ठी में कहा था कि पाश्चात्य संस्कृति के बहाव में ये सब हो रहा है, बच्चे संस्कार खो रहे हैं, जब सारा संसार हमारी संस्कृति की तरफ आ रहा हो जैसे कि योग, ऐसे में क्या हमें पाश्चात्य संस्कृति का रुख क्यों करना चाहिए। देखा जाए तो यह संदर्भ किसी भी पैमाने पर अनुचित नहीं था और न ही इसमें कुछ आपत्तिजनक था, लेकिन पिछले दो दिन से मीडिया और सोशल मीडिया पर जिस तरीके से इस बात को मुद्दा बनाया जा रहा है, वह खास लोगों की खास मानसिकता की कलई खोलने वाला है। वह भी तब जबकि हम देश के जिस भूभाग में रहते हैं, उसके प्रति देशवासियों ही नही विदेशियों की भी बड़ी आस्था रहती है, तब अगर सीएम ने पहनावे को दुरुस्त करने की उम्मीद कर दी तो आसमान तो नहीं गिर गया था। उनका कहना था कि अगर ऐसे कपड़े पहनकर महिला समाज में चलेंगी तो लोगों के बीच क्या संदेश जाएगा। यह स्वाभाविक सी बात थी। जाहिर है अगर एक बच्चे को घर में सही संस्कार दिए जाएं तो वो जीवन में कभी भी नहीं हारेगा। सीएम तीरथ सिंह रावत ने ठीक ही कहा था कि बच्चे संस्कार से ही बड़े बनेंगे। उन्होंने संदर्भ के नाते नई पीढ़ी और मां पिता पर भी कटाक्ष किया था और कहा था कि बच्चे को घर स्कूल में कैसी शिक्षा दी जा रही है, इस पर ध्यान देना जरूरी है। कोई भी सामान्य बुद्धि का व्यक्ति इस कथन को आपत्तिजनक नहीं ठहरा रहा है लेकिन खाली बैठे कुछ लोगों को एक बहाना जरूर मिल गया है कि किसी तरह बात का बतंगड़ बन जाए।
एक सवाल उन लोगों से पूछा जा सकता है कि क्या वे अपने परिजनों को अर्धनग्न वस्त्रों में देखना पसंद करेंगे? सच तो यह है कि भारतीय संस्कृति में नारी को अस्मिता का पर्याय माना जाता है। कोई भी व्यक्ति अपने घर की नारी को सही लिबास में ही देखना चाहता है, बेशक दूसरों को अर्द्धनग्न देखना चाहे, इस सच से मुंह मोड़ने की प्रवृत्ति ही विवाद को जन्म देती है और यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि कुछ लोग इस तरह के मौके की ताक में रहते हैं। यह अलग बात है कि इस मुद्दे पर कम से कम उनकी मुराद तो पूरी नहीं हो पाएगी। लिहाजा विरोध के लिए विरोध की प्रवृति को अनदेखा किया ही जाना चाहिए। देखना यह है कि देवभूमि के कितने फीसद लोग विरोध की पंक्ति में दिखेंगे। कम से कम मातृ शक्ति तो इस बात को स्वीकार नहीं करेगी और इस बात के परिणाम और प्रमाण सामने आने भी लगे हैं। फैसला जनता पर छोड़ देना चाहिए।
विजय पंवार