लोक रहेगा तो भिटोली भी आती रहेगी
वसंत अपने चरम पर है। वैसे चंद्र मास की प्रतिपदा 13 अप्रैल को है लेकिन सौर मास उस दिन समाप्त हो जाएगा। लेकिन वसंत ऋतु तो रहेगी ही। उत्तराखंड के लोक जीवन में इस महीने का विशेष महत्व है। खासकर उन महिलाओं के लिए जो मायके से आने वाली भिटोली की इंतजार में टकटकी लगाए रहती हैं। भिटोली नहीं आई तो कफ्फू, हिलांस, घुघुती के जरिए संदेश भेजती हैं, अपनी मां को। शायद मां भूल गई हो, अपने दुख दर्द में उलझी मां को याद ही न रही हो, या मायके में कोई हो ही नही। लोक ने इस पीड़ा को जो अभिव्यक्ति दी, वह कारुणिक तो है ही, प्रकृति के साथ सहचर्य की इस मृदुलता को सहज ही समझा जा सकता है। तब उत्तराखंड की लोक संस्कृति के पुरोधा नरेंद्र सिंह नेगी के कंठ से स्वर फूटते हैं – घुघुती घुराण लैगी म्यारा मैत की, बोड़ी बोड़ी एगी ऋतु ऋतु चैत की।मायके में रह रही नारी की करुण वेदना का यह प्रस्फुटीकरण अंतस को झकझोर देता है। आखिर मायके की सौगात आने में देर क्यों हुई? हे घुघुती, हे हिलांस, हे कफ्फू जाओ तो जरा – धार के उस पार। देख आओ, मेरी मां मुझे भूल तो नहीं गई? उसे मेरा संदेश पहुंचा दो कि भिटोली के इंतजार में मैं सूख कर कांटा हो रही हूं। पति भी सीमा पर तैनात हैं, मैं अपनी पीड़ा सुनाऊं भी तो किसे?कुमाऊ की लोक संस्कृति के मर्मज्ञ गोपाल बाबू के कंठ से निकली करुण पुकार शायद मायके में मां तक पहुंच जाए – घुघुति न बासा, आमे की डाई म घुघुति न बासा। उड़ी जा ओ घुघुति न्हे जा लद्दाख, हाल मेरा बतै दिए मेरा स्वामी पास, घुघुति न बासा।यही नहीं मैत के औजी दिदा के ढोल के बोल सुनाई दे रहे हैं, शायद मेरी मां ने उसी के हाथ कुशलक्षेम भेजी होगी। बेचारी खुद तो आ नहीं सकती। औजि दिदा को ही मेरी खैर खबर लेने भेजा हो। लो औजी दिदा पहुंच भी गया। आज तो त्योहार का सा दिन है, मायके से संदेश जो आया है, कुशलक्षेम बताने के बाद औजी दिदा ने अपने ढोल की गूंज के साथ स्वर लहरी छेड़ दी है – खुदेनी नि राई, खुदेनि नि राई। बस अब क्या आंखों से अश्रुधार फूट पड़ी है, लेकिन साथ ही संतोष भी है, मायके में सब कुशल से हैं, अभी तो औजी दिदा ने बता दिया, वही तो दिशा धियान का सहारा है, इस वक्त। लोक में जितने ढूंढो उतने रंग झलकते हैं, तभी तो विरहिणी के कोमल कंठ की यह पुकार भी सुनाई देती है – बास घुघुति बास मेरा मैत की दिशा, बास हिलांस बास मेरा मैत की दिशा, मेरी जिया सुनली, मैं मैत बुलाली। निरमैत धियान बाटु देखी रोणी।यह महज कुछ बानगी भर है। लोक में इस तरह की व्यथा का अंबार है और सदियों से है। इस अकेले विषय पर उत्तराखंडी लोक समाज में इतना खजाना बिखरा है कि पूरा महाकाव्य लिखा जा सकता है। तमाम ज्ञात अज्ञात लेखकों, कवियों, मनीषियों ने पर्वतीय नारी की वेदना को महसूस कर शब्दों में पिरोया है लेकिन आज यह सब अतीत का हिस्सा हो रहा है। भौतिक उन्नति होने, यातायात व संचार के संसाधन उपलब्ध होने और पर्वतीय जनजीवन की जटिलता, दुरुहता और कठिनाइयां बेहद कम होने से अब ये गीत, बोल, शब्द संपदा यूट्यूब के खजाने में सामने जा रहा है। इसका अच्छा और सुखद पहलू यह है कि पर्वतीय नारी अब साधन विहीन नही रह गई है, उसके पास आज चाबी है, देहरादून हल्द्वानी में घर या प्लाट है तो उसी के साथ शादी करेगी, हालांकि गांव भी अब सुविधा संपन्न हो गए हैं, सेलू के लप्पे से सिर नहीं धोया जाता, वहां भी सैम्पू और साबुन उपलब्ध है, रीठे का पाउडर अब नहीं बनाना पड़ता, पानी घर के अंदर है और बड़ी बात खेती भी ज्यादा ज़रूरी नहीं रह गई है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि लोक की यह अपार संपदा हमारे पास महत्वपूर्ण दस्तावेज है, यह न सिर्फ लोकरंजन की विषयवस्तु है बल्कि इतिहास के वो पन्ने हैं, जिन्हें मिटाया नहीं जा सकता। आज नहीं तो कल इन पन्नों को पलटा तो जरूर जाएगा। लोक की कोई भी सामग्री व्यर्थ नहीं होती, ऐसा भी नहीं है कि पहाड़ में आज किसी को खुद नहीं लगती, नराई नहीं लगती या याद नहीं आती। आज भी अनेक महिलाएं कष्टों के बोझ तले दबी हैं, उनकी संख्या बेशक कम हो, लेकिन वेदना कम नहीं हुई है।तभी तो गीत आज भी जिंदा हैं – तै दिवारी डांडा बासला हिलांस, खुदेनि नि राई। चांदी को हिवालो सोना को दिखेलो, जब घाम अच्छेलो, खुदेंनी नि राई। निष्कर्ष यह कि जब तक ये लोक रहेगा, डांडी कांठी रहेंगी, कफ्फू, घुघुति, हिलांस रहेंगी तब तक भिटोली भी रहेगी, खुद भी आएगी, नराई भी रहेगी। पराज भी होगा और वह सब कुछ होगा, जो इस विशिष्ट लोक की विशेषता है।
(वरिष्ठ पत्रकार दिनेश सेमवाल शास्त्री की कलम से )