भाजपा के बैंक खाते सीज होने चाहिए: डा.जया शुक्ला
नई दिल्ली।कांग्रेस बिचार बिभाग की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डा.जया शुक्ला ने एक भेंट वार्ता में कहा वैसे तो चन्दा लेना जुर्म नही है, लेकिन जिस तरह से मोदी सरकार ने केंद्रीय जांच ऐजेंसियों का दुरुपयोग कर अपनी पार्टी के लिए आकूत धन बटोरा है इसकी प्रक्रिया में अनेकों लच्छेदार पेंच आने संभव हैं, जो इसकी पूरी परिभाषा और हक़ीक़त ही बदल कर रख देने में सक्षम हैं। और इन्ही पेंचों का उपयोग पिछले कुछ ही वर्षों में “इलेक्टोरल बॉण्ड” नामक गोरखधंधे में किया गया दिख रहा है।
इलेक्टोरल बांड का हिसाब अभी अधूरा ही आया है, किंतु जो सामने आ चुका है, उतना भर भी बेहद चौंकानेवाला और डरावना है । गोदी मीडिया की इस विषय में अविश्वसनीय चुप्पी है, जो आज तक की उनकी “न भूतो न भविष्यति” प्रकार की चुप्पियों को भी मात दे रही है। मगर गली-चौराहों तक जमकर बात तो हो ही रही है।
भारत मे, तथा पूरे विश्व में भी, पॉलीटकल फंडिंग के लिए चंदा लेने का तरीका हमेशा से रहाहै।परंतु लाभ देने के सैंकड़ो तरीके संभव हैं, जो हमेशा पूरी तरह राष्ट्रहित में नहीं होते। सत्ता में आनेजाने वाले दल, नीतियां निर्धारित करते हैं। एक नीति, अरबो के वारेन्यारे करवा सकती है। प्रोडक्ट का टैक्सस्लैब भर बदल देनेसे (बेशक बहाना जनता को राहत देने का हो) उस प्रोडक्ट को बनानेवाली कम्पनी का बिजनेस दोगुना हो जाएगा। साथ ही एक SEZ में जगह मिल जाना, कुछ हजार करोड़ की जमीन और बरसों तक मुनाफा सुनिश्चित कर देगा। इससे ज़्यादा अहम कुछ डरावनी बातें भी हैं, जो लाभ घटाने के तरीक़े हैं। सरकारकी एक पॉलिसी व्यापार चौपट कर सकती है। सत्ता में जाने कौन, कब आ जाये, तो व्यापार जगत, सबसे बनाये रखना चाहता है, वो मजबूरन चन्दा देता है। और पार्टियां भी मजबूरन लेती हैं।चुनावों में कई प्रकार के अघोषित खर्च भी होते हैं, जीतते दिखने का माहौल तो चाहिएही, जो पोस्टर, बैनर, प्रचार, रैली, शोरगुल, और टीवी अखबार के पॉजिटिव रिव्यू, फिक्स किये गए सर्वे से दिखता है। बेतहाशा पैसे लगते हैं।
इलेक्टोरल बांड से चन्दा तो सबने ही लिया है। सवाल केवलमात्र यह नहीं है कि 90% एक ही दल को कैसे गया, यह भी नही की किस कम्पनी को किस चन्दे के एवजमें कौन सा प्रोजेक्ट मिला। कई ख़तरनाक सवाल और हैं। जो सबसे अहम प्रश्नहै, वह है कि इनकमटैक्स और ईडी के छापों से परेशान कम्पनियों से हजारों करोड़ के चन्दे क्यूं लिए गए। और फिर तुरंत बाद जाँच में यही कंपनियाँ पूरी पाक-साफ़ कैसे पायी गईं? आख़िरकार एक निर्वचित सरकार, और चालू माफियागिरी, एक्सटोर्शन, कनपटी पर गन रखकर वसूलीका धंधा करनेवाले गुंडों में कुछतो अंतर होना चाहिए !
एक अन्य अहम प्रश्न यहभी है कि जब शेल कम्पनियों को खत्म करदेने का ढिंढोरा पीटागया था, तो शेल कम्पनियों से राजनीतिक चन्दा कैसे लियागया? यह भी प्रश्न उठता है कि जितने का बिजनेस नही, उससे ज्यादा चन्दा आया कैसे? क्या यह साफ़साफ़ धनशोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) नहीं है?
अगर यह काम, इलेक्टोरल बांड ( जिस पर ईडी को सवाल करने की इजाजत नही) की जगह चेक या नगद होता, तो पैसा लेने और देने वाले को जमानत नही मिलती। शराब ठेके के बदले चुनावी चंदा लेने के “शक में” दिल्ली का उपमुख्यमंत्री साल भर से जेल में है। केस मनीलांड्रिंग का ही बनाया है।
चालीस साल पहले कांग्रेस का पराभव जिस आरोप में हुआ, वो बोफोर्स की दलाली महज 64 करोड़ की थी, जो साबित भी नहीं हो पायी।दलाली एक लीगल बिजनेस है। रक्षासौदों में दलाली ज्यादातर देशोंमें लीगल है। लेकिन बोफोर्स में असल आपत्ति यहथी कि दलाली का पैसा, घुमा फिराकर, कांग्रेस के चुनावी खजाने में पहुँचा, जो आरोप कभी साबित नही हुआ। लेकिन आज पूरे 20 हजार करोड़ की रिश्वत की ट्रेल मौजूदहै। दस्तावेज सामने है, कि पैसा किस पार्टी के खाते में डाला गया। रिश्वत मिलते ही, उसे चंद दिनों में ठेका, प्रोजेक्ट, जमीन, सौदा, अनुमति, लाइसेंस हासिल हो गया। बांड का नम्बर, उसे लेनेवाली कंपनी, उसे भुनानेवाली पार्टी का नाम- बैंक के एविडेन्स के साथ, सार्वजनिक होकर घूम रहा है।रिश्वत स्वयमसिद्ध है।
याद रहे, रिश्वत विपक्ष को, या राह चलते शख्स को नही दी जाती। उसे दी जाती है, जिसके दस्तखत से ठेका जारी हो सके।
वक्त का तकाजा है, दोषी दलों सारी सम्पत्ति जप्तकर, बैंकखाते सीज कर, इनके नेताओ को जेल में डालकर, चुनाव चिन्ह जप्तकर, चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। यही उचित और नैसर्गिक न्याय होगा। पर ये कर सकने की ताकत शायद सुप्रीम कोर्ट में नही।
यह काम, चुनाव आयोग या किसी राज्य या विपक्ष के नेता के अधिकार में नही। यह सिर्फ एक व्यक्ति के अधिकार में है।
पर अफसोस, वह शख्स कहीं फैंसी सूट में, ऐसी मांग को सुनकर, ठठाकर हंस देगा। क्योकि वह खुद इस स्कीम से बनाई गई अकूत दौलत और लीगल लूट के धंधे का सरगना है।