हिंदी है हम, नही हैं कम
हैं जन्म जिस देश में लिया
बचपन, जवानी जी भर वहाँ जिया
सुगंध विखेरने चला एक पुष्प
और बीज बन मिट्टी से जा मिला
खाद-पानी ले वहाँ हिंदी से
तब जाके हैं आज कहीं खिला।
हर सुख-दुख में रहीं है हिंदी
हवा भले ही चली कैसी हो
परछाई बन संग साथ रहीं हैं हिंदी।
हिम्मत,हौसला,बहादुरी सब तुझसे
बोली, भाषा,जुवां, शब्द मेरे
तू मातृभाषा मेरी हिंदी
सारे-जहाँ से गुलिस्तां जैसे।
गर्व खुद पर हैं कि हिंदी तू मुझे मिली
धन्यवाद ईश्वर का ये पैदाइशी मिली।
अदभुत संयोग हैं इस जमीं का मुझ पर
मैं हिंदुस्तान का और हिंदी पहचान मिली।
मेरी नज़रों से सपनों तक का चेतन,अर्धचेतन,होश-मदहोश होने तक का
हँसना,रोना, चीखना,चिल्लाना
सब कह देती हैं हिंदी
पढ़ लेती हैं भावों को
सिहाराने से आँगन तक
यू रची-बसी हैं हिंदी।
मेरी कविता,कहानी,चित्रों के साथ हिंदी
घुल जाती है एक आदर्श विलायक की तरह हिंदी
जिसे अलग करना मुश्किल नही असंभव हैं
जैसे अलग करना हो प्रकृति को प्रेम से
हर प्यार की भाषा हिंदी।
मेरी जीत में
मेरी हार में
विद्धता में,मूर्खता में
क्रोध में, प्रेम में
सफलता-असफलता में
जन-परिजन,चित-परिचित में
दिख जाती हैं हिंदी
बिल्कुल चमकते सूरज की तरह–——–
घने,काले, डरावने बादलों के बीच में।
रोशनी बिखेरती रहती है हिंदी।
चाँद नही हिंदी
तारे भी नही हैं हिंदी
ये चमकती हैं स्व-प्रकाश से
राष्ट्र को पुलकित करने
प्रकाश-पुंज से
मूल स्रोत की तरह
दृश्यमान हैं
अदृश्य नही है हिंदी।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय’नेचुरल’
उत्तराखंड